Saturday, October 8, 2011

दरियादिली के शौक का इकरार बैठे

सितम कितने भी कर लो, हम नहीं करते बगावत हैं
कि हम दरियादिली के शौक का इकरार बैठे |


हमारी सादगी पे खुश हुए वो, मुस्कुरा कर के
बिना सोचे, बिना समझे, दुबारा वार कर बैठे |


फ़कत इतना समझते थे, हमारी एक है मंजिल
खबर क्या थी वो रस्ता और अख्तियार कर बैठे |


नहीं सोचा था हमने, इस कदर नफरत मिलेगी यूं
मिले तुमसे, तो अपनाकर तुम्ही से प्यार कर बैठे |


कहीं ये नफरतें तुझको फ़ना करके नहीं रख दें
हमारी दुश्मनी में खुद को तुम गद्दार कर बैठे |


अभी भी वक्त है, इस दिल में आकर फिर से बस जाओ
हुई जो देर, हम दरिया सबर का पार कर बैठे |

कि हम इंसान हैं, हमको भी होती है फिकर तेरी
फ़ना होने से पहले, तुझको दावेदार कर बैठे |


भटकती रूह की ख्वाहिश से किसको वास्ता रहता 
हमें तू याद कर, हम मौत का दीदार कर बैठे |

Wednesday, August 3, 2011

काव्य विमर्श

कभी कभी काव्य में छिपे अर्थ तलाशना मुश्किल होता है...इसीलिए ऐसी रचनाओं के प्रति आकर्षण होता है जो सरल हों....सरलता शब्दों की, भावों की नहीं....यदि सरलता से भी कुछ सामान्य शब्द  प्रयोग किए जाएँ तो भी काव्य आकर्षक व भावप्रधान हों सकता है....अनेक कवि, रचनाकार हुए, सूर, तुलसी, कालिदास, नागार्जुन, केशवदास,.....हम सभी जानते हैं ये कितने महान थे...दुहराने की आवश्यकता नहीं...परन्तु फिर भी सामान्य जनजीवन में सूर, तुलसी ही क्यों ज्यादा चर्चित रहे.?....केशवदास, कालिदास के विषय में भी सब जानते हैं....यहाँ तक कि संस्कृत में लिखी कालिदास की रचनाएं अति चर्चित हैं, हमें उनकी कथाएं ज्ञात हैं..परन्तु क्यों हमें उनकी रचनाओं के एक भी श्लोक नहीं याद हैं?...केशवदास की महानता असंदिग्ध है, परन्तु क्या जनसामान्य उनकी एक भी रचना कंठस्थ कर सका..?.....ये इसलिए कि इन सबकी रचनाये भाषा शैली कि दृष्टी से दुरूह थी...जनसामान्य से सीधा संवाद बनाने में असमर्थ....सूर, तुलसी कि रचनाये जनता के अधिक निकट हैं.....कौन साहस करेगा सूर, तुलसी की रचनाओं में भाव-रहस्य के आभाव का आरोप लगाने का.?..परन्तु उनके गाम्भीर्य को भी जनमानस अपना चुका है...कहने का तात्पर्य ये है कि बस भाषा की कठिनता से ही गंभीरता की झलक नहीं मिलती...ये रचना देखिये....---."केशव को पतियाँ नहीं, ना भेजो अरदास, वो खुद आवे पूछता ऐसी रखो प्यास...""---..इस रचना में क्या गंभीर भाव की कमी है..?...परन्तु ये जनसामान्य से अवश्य जुडेगी.

Tuesday, August 2, 2011

जिंदगी का यकीन

किया था यकीं एक दिन जिंदगी पे
बनाया उसे था बहारों का मौसम
बहारें गयीं जब तो टूटा था दिल ये
यकीं कैसे हों अब किसी पे बताओ ................राहुल

 

Wednesday, July 27, 2011

धर्म और आध्यात्म

निश्चित रूप से धर्म और आध्यात्म में अंतर है.....आपने कहा कि "धर्म अन्धों कि लाठी मात्र है...".....आपकी बात से सहमत हुआ जा सकता है अगर आप "धर्म" कि जगह "पंथ या कर्मकांड" शब्द का प्रयोग करें.......धर्म कोई कर्मकांड नहीं, धर्म सामाजिक आवश्यकता है....समाज के विकास कि पद्धति है......आध्यात्म और धर्म में तुलना कि जाए तो धर्म का पलड़ा भारी बैठता है.....आध्यात्म मनुष्य की व्यक्तिगत आवश्यकता है.....आप आध्यात्मिक है तो आप निश्चित रूप से मोक्ष को स्वयं के लिए सुरक्षित कर रहे हैं....परन्तु यदि आप धार्मिक है तो समाज में अपना योगदान, न चाहने पर भी, स्वतः दे देंगे.....धर्म किसी समुदाय विशेष से सम्बंधित नहीं है...जिसे धर्म समझ रहे हैं आप , वो बस एक पंथ के अंतर्गत आने वाला कर्मकांड मात्र है.......

...धार्मिक भी हूँ और हिंदू भी

मै कहता हू मै हिंदू हूँ.....तो इसका अर्थ ये है कि मुझने वो सामर्थ्य है कि मै स्वयं से विरोधाभास प्रकट करने वाले विचारों को भी धैर्य पूर्वक सुन सकूँ....मुझमे वो छमता है कि अगर मेरे विचारों में कोई त्रुटि है तो उसे निकाल बाहर करूं....किसी और के विचार अपना सकूँ यदि वो उचित हैं तो......ये सब करने में मेरा मन और मेरे संस्कार मेरी पगबाधा नहीं बनेंगे...........धार्मिक हू तो इसका अर्थ ये है कि मुझमे मानवता है.....मै किसी को कष्ट पहुचाना घृणित कृत्य समझता हूँ....मै धार्मिक हू अर्थात मै वो करता हूँ जो धर्म है, अर्थात जिसमे समाज व विश्व कि भलाई है.....धर्म वो है जो सबको सुखी सकने के लिए किया गया कृत्य है....धर्म वो है जो मानवता की भलाई के लिए बनाए गए नियम हैं......................धार्मिक भी हूँ और हिंदू भी

Monday, July 25, 2011

तुम पुराने हम पुराने

क्या सुनाए दास्तानें, तुम पुराने हम पुराने
लौट कर एक बार जो, आया हूँ मिलने तुमसे फिर मैं
रह गया हैरान सुनकर, जो किए तुमने बहाने

मिट गया था, लुट गया था, दिल ये मेरा फट गया था
देखा मैंने दौर जो वो, मन सभी से हट गया था
जोड़ कर लाया हूँ दिल फिर से जरा तुमसे लगाने

कह दिया था तुमने एक दिन, जा चला जा दूर मुझसे
सुन लिया था मैंने उस दिन, मानकर मजबूर है तू
सुन खबर खुशियों की, आया याद तुझको फिर दिलाने

जिंदगी था, बंदगी था, तू हमेशा संग ही था
क्यों चला जाऊं मैं फिर से, तोड़ कर नाते पुराने
याद रखना गर मैं आया, फिर कभी मिलने जो तुझसे
याद कर लेना हिसाबों को जो तुमको हैं चुकाने.............................राहुल