Wednesday, August 3, 2011

काव्य विमर्श

कभी कभी काव्य में छिपे अर्थ तलाशना मुश्किल होता है...इसीलिए ऐसी रचनाओं के प्रति आकर्षण होता है जो सरल हों....सरलता शब्दों की, भावों की नहीं....यदि सरलता से भी कुछ सामान्य शब्द  प्रयोग किए जाएँ तो भी काव्य आकर्षक व भावप्रधान हों सकता है....अनेक कवि, रचनाकार हुए, सूर, तुलसी, कालिदास, नागार्जुन, केशवदास,.....हम सभी जानते हैं ये कितने महान थे...दुहराने की आवश्यकता नहीं...परन्तु फिर भी सामान्य जनजीवन में सूर, तुलसी ही क्यों ज्यादा चर्चित रहे.?....केशवदास, कालिदास के विषय में भी सब जानते हैं....यहाँ तक कि संस्कृत में लिखी कालिदास की रचनाएं अति चर्चित हैं, हमें उनकी कथाएं ज्ञात हैं..परन्तु क्यों हमें उनकी रचनाओं के एक भी श्लोक नहीं याद हैं?...केशवदास की महानता असंदिग्ध है, परन्तु क्या जनसामान्य उनकी एक भी रचना कंठस्थ कर सका..?.....ये इसलिए कि इन सबकी रचनाये भाषा शैली कि दृष्टी से दुरूह थी...जनसामान्य से सीधा संवाद बनाने में असमर्थ....सूर, तुलसी कि रचनाये जनता के अधिक निकट हैं.....कौन साहस करेगा सूर, तुलसी की रचनाओं में भाव-रहस्य के आभाव का आरोप लगाने का.?..परन्तु उनके गाम्भीर्य को भी जनमानस अपना चुका है...कहने का तात्पर्य ये है कि बस भाषा की कठिनता से ही गंभीरता की झलक नहीं मिलती...ये रचना देखिये....---."केशव को पतियाँ नहीं, ना भेजो अरदास, वो खुद आवे पूछता ऐसी रखो प्यास...""---..इस रचना में क्या गंभीर भाव की कमी है..?...परन्तु ये जनसामान्य से अवश्य जुडेगी.

Tuesday, August 2, 2011

जिंदगी का यकीन

किया था यकीं एक दिन जिंदगी पे
बनाया उसे था बहारों का मौसम
बहारें गयीं जब तो टूटा था दिल ये
यकीं कैसे हों अब किसी पे बताओ ................राहुल